आदर्श नेतृत्व का पाठ पढ़ाते संवेदना से सराबोर शिक्षक


चंदरखानी दर्रा पहुंचने के लिए चला एक स्कूली अभियान मुश्किल में फंस गया था। रात भर आए भयंकर बर्फीले तूफान ने लड़कों-लड़कियों के समूह की थकावट को बढ़ा दिया था, जिसके चलते ट्रेक का नेतृत्व करने वाले हेडमास्टर को वापसी का फैसला लेने के लिए मजबूर होना पड़ा था। दशकों बाद ट्रेक पर गए छात्रों में से एक ने याद किया कि तब दृढ़ या सख्त होने की जरूरत पर कोई लेक्चर नहीं दिया गया था। इसके बजाय, हेडमास्टर ने विद्यार्थियों का मनोबल बनाए रखने के लिए हास्य-विनोद का प्रयोग किया था। वह द लॉरेंस स्कूल, सनावर के हेडमास्टर शोमी रंजन दास थे।


इसी साल बेंगलुरु में वंचित बच्चों के लिए संचालित परिक्रमा ह्यूमैनिटी फाउंडेशन स्कूलों में से एक में स्वतंत्रता दिवस समारोह का आयोजन हुआ। एक किशोर मंच पर बुरी तरह डर गया, जैसे ही वह मंच से उतरा, उदास हो गया। तभी स्कूल की संस्थापक शुक्ला बोस ने आगे बढ़कर उसे गले लगा लिया।

अपने समाज में हम व्यवसायियों, राजनेताओं और खेल सितारों को महत्व देते हैं और अपने ऐसे महान शिक्षकों को भी नजरअंदाज कर देते हैं, जो नेतृत्व और देखभाल, दोनों ही तरह की भूमिका एक साथ निभाते हैं। ऐसे शिक्षक आज ज्यादा प्रासंगिक आदर्श हैं। शोमी दास को मेयो कॉलेज, द लॉरेंस स्कूल और द दून स्कूल में हेडमास्टर रहने और फिर ओक्रीज इंटरनेशनल स्कूल की सफल स्थापना का अनूठा गौरव हासिल है। दूसरी ओर, शुक्ला बोस ने ओबेरॉय होटल्स में काम किया और फिर रिजॉर्ट कॉन्डोमिनियम्स इंडिया का नेतृत्व किया। इसके बाद उन्होंने बेंगलुरु की एक झुग्गी बस्ती में छोटी-सी मेज के साथ बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। उनकी संस्था 20 साल बाद ऐसे 1,800 बच्चों के लिए चार स्कूल और एक जूनियर कॉलेज चला रही है, जो झुग्गियों और अन्य आश्रय स्थलों से पढ़ने आते हैं।

इस वर्ष आई साइमन विंचेस्टर की किताब नोइंग व्हाट वी नो में बताया गया है कि परिक्रमा संस्था छात्रों की देखभाल की दिशा में एक नया मानक स्थापित कर रही है, क्योंकि इसमें उनके माता-पिता को अपनी जिम्मेदारियों में शामिल किया गया है। इनके स्कूल लगभग 60 अभिभावकों को भी रोजगार देते हैं। घर में अक्सर चुनौतीपूर्ण हालात के बावजूद, बच्चों का उच्च उत्साह और आत्मविश्वास काबिले-तारीफ है। बच्चे अपने शिक्षकों को अन्ना और अक्का मतलब बड़े भाई व बहन कहते हैं। दास और बोस समान सिद्धांत साझा करते हैं। सुकन्या दास, जो शोमी दास की जीवनी पर काम कर रही हैं, मानती हैं कि शोमी दास में सामाजिक सेवा के प्रति प्रतिबद्धता और बच्चों को कक्षा से बाहर पाठॺेतर गतिविधियों से अवगत कराने की जिद थी। द दून स्कूल में, दास ने 1992 में उत्तरकाशी भूकंप के बाद राहत कार्य में छात्रों की मदद ली थी। ऐसे ही, बोस ने छात्रों को कुशल बनाने के लिए ‘नो वॉल्स स्कूल’ की स्थापना की।

मैं आधी सदी पहले मेयो कॉलेज का छात्र था, जब दास वहां प्रिंसिपल थे। तब प्रिंसिपल के घर जाना नियमित और मजेदार हुआ करता था। हम अब भी ई-मेल और फोन के जरिये जुड़े रहते हैं। वह इस बात पर जोर देते हैं कि मैं अब उन्हें ‘सर’ कहना बंद कर दूं, इससे उन्हें बैंक मैनेजर जैसा महसूस होता है। वह अब 88 वर्ष के हैं और पिछले दिनों बेंगलुरु में दून और मेयो के पुराने छात्रों के बीच हुए क्रिकेट मैच में मुख्य अतिथि थे। वहां वह एक युवा से उसके कृषि व्यापार के बारे में भी गौर से सुन रहे थे। दास ने वहां धीरे से बताया कि अफसोस है, दोनों स्कूलों के पूर्व छात्र अलग-अलग बैठे हैं। मैंने यह सुधार किया और एक बहुत सुखद दोपहर बीती। दूसरी ओर, बोस पिछली बातचीत में 30 वर्षीय पूर्व छात्र के किडनी प्रत्यारोपण को लेकर चिंतित थीं। इलाज की योजना बनाने में जुटी थीं तथा एक अनाथ बच्चे के लिए मां-बाप बनने के तनाव में थीं। बोस बताती हैं कि उन पर एक बड़ा प्रभाव अमेरिकी लेखक डेविड ब्रूक्स का रहा है, जिन्होंने द रोड टु कैरेक्टर और हालिया प्रकाशित हाउ टु नो ए पर्सन में एक बेहतर श्रोता और सहानुभूति से सराबोर व्यक्ति बनने के सिद्धांत दिए हैं। विचार और कर्म से दास व बोस अपने छात्रों की कई पीढ़ियों को मजबूत करने के सिद्धांत पर कायम हैं।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)