हताशा को हर हाल में हराने का हौसला: राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, पिछले दो दशकों में विद्यार्थियों में जान देने के मामले चार प्रतिशत की दर से बढ़े हैं। क्या हम इस पर लगाम लगा सकते हैं?

 

बीते दिनों आईआईटी, रुड़की की बीटेक दूसरे वर्ष की छात्रा ने खुदकुशी कर ली। इस संस्थान में पिछले एक साल में आत्महत्या का यह तीसरा मामला था। आईआईटी संस्थानों में देश के प्रखर छात्र-छात्राओं को ही दाखिला मिलता है। ऐसे में, वहां हर साल आत्महत्या के कई मामलों का सामने आना चिंता की बात है। वास्तव में, आईआईटी ही नहीं, देश के हरेक कोने में विद्यार्थियों में खुदकुशी की बढ़ती प्रवृत्ति चिंताजनक है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार, पिछले दो दशकों में विद्यार्थियों में जान देने के मामले चार प्रतिशत की दर से बढ़े हैं, जबकि कुल आत्महत्या में दो फीसदी की दर से वृद्धि हुई है। पिछले एक दशक (2014-24) में तो यह पाया गया है कि छात्रों में आत्महत्या की दर नौजवानों की जनसंख्या वृद्धि दर से ज्यादा रही है। 2014-15 में विद्यार्थियों की आत्महत्या के 6,654 मामले दर्ज किए गए थे, जो 2023-24 में बढ़कर 13,044 हो गए।


एनसीआरबी के आंकड़ों पर आधारित आईसी3 इंस्टीट्यूट द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट (2024) के अनुसार, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और मध्य प्रदेश ऐसे राज्य हैं, जो विद्यार्थियों की खुदकुशी के मामले में सबसे ऊपर हैं। यह सही है कि देश के तमाम शहरों में छात्र आत्महत्या करते हैं, लेकिन कुछ ऐसे शहर भी हैं, जहां यह समस्या गंभीर रूप ले चुकी है। इनमें राजस्थान का कोटा शहर सबसे ज्यादा बदनाम है। साल 2023 में यहां 26 किशोरवय छात्रों ने आत्महत्या की थी। साल 2024 में इस संख्या में जरूर गिरावट आई और 17 ऐसे मामले दर्ज किए गए, लेकिन बीते एक महीने में यहां छह छात्र अपना जीवन खत्म कर चुके हैं।


कोटा छात्रों की आत्महत्या का गढ़ क्यों बन गया है और राज्य सरकार इसे क्यों नहीं रोक पा रही, इस पर कई बार अध्ययन हो चुके हैं। दरअसल, पिछली सदी के 60 के दशक में कोटा उत्तर भारत का एक प्रमुख औद्योगिक शहर बन गया था, जहां कई औद्योगिक घरानों ने बड़ी-बड़ी फैक्टरियां स्थापित की थीं। सन् 1991 के उदारीकरण से पहले अधिकांश उद्योग-धंधे बंद हो गए और वहां एक नए उद्योग का जन्म हुआ, जिसे ‘कोचिंग इंडस्ट्री’ कहते हैं।


कोटा देश का वह शहर है, जहां जेईई और नीट की तैयारी कराने वाली कई बड़ी-बड़ी कंपनियां संचालित होती हैं। यह कोचिंग का फैक्टरी मॉडल है। इन कोचिंग कंपनियों के पास बड़े-बड़े ऑडिटोरियम हैं, जहां छात्र-छात्राओं को कुछ नामचीन अध्यापक पढ़ाते हैं। अपनी संतान को डॉक्टर और इंजीनियर बनाने के लिए देश भर के मध्यवर्गीय अभिभावक 14 से 18 साल के बच्चों को इन कोचिंग संस्थानों में लाखों रुपये की फीस देकर दाखिला दिलाते हैं। ये कोचिंग संस्थान इन किशोरों को दिन में 12 से 16 घंटे पढ़ने के लिए मजबूर करते हैं, जिसका दबाव बहुत से छात्र नहीं झेल पाते। इनमें से अधिकांश निजी छात्रावासों में रहते हैं और मानसिक रोगों के शिकार बन जाते हैं। यहां के कोचिंग उद्योग के सफेद व स्याह पहलुओं को नेटफ्लिक्स की एक सीरीज ने बहुत अच्छे ढंग से उजागर किया था।


14 से 22 वर्ष की आयु वाली पीढ़ी हमारे देश का भविष्य है। भारत का 2047 तक विकसित राष्ट्र बनने का सपना कुछ हद तक इस बात पर भी निर्भर करेगा कि हम देश के इन 25 करोड़ नौजवानों को मानसिक रोगों, खासतौर से ‘डिप्रेशन’ से किस हद तक बचा पाते हैं? यह हमारे समाज का दुर्भाग्य है कि मानसिक रोगियों को हिकारत की नजर से देखा जाता है। बच्चों को निराशा और हताशा से बचाने की जिम्मेदारी सरकारों के साथ-साथ उन अभिभावकों की भी है, जो अपने अधूरे सपनों को बच्चों के ऊपर लादकर तमाम तरह की हसरतें पाल बैठते हैं। सवाल है कि शिक्षित युवा और विद्यार्थी अपने जीवन का खुद गला क्यों घोंटते हैं? क्या वे खुदकशी से पहले अपनी बेचैनी के संकेत अपने परिजनों, संगी-साथियों या शिक्षकों को नहीं देते? अगर ऐसे संकेत मिलते हैं, तो उन्हें समय पर मनोचिकित्सा देकर क्यों नहीं बचा लिया जाता?


हर साल जब जेईई और नीट के रिजल्ट घोषित किए जाते हैं या दसवीं-बारहवीं के परिणाम आते हैं, तो मीडिया में असफल विद्यार्थियों द्वारा आत्महत्या की खबरें भी आने लगती हैं। तमिलनाडु जैसे कई राज्यों में यह एक गंभीर समस्या बन चुकी है। परीक्षा में फेल होने बाद की जाने वाली आत्महत्या हमारी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में निहित भयंकर बीमारी का संकेत देती है। एक तरफ आर्थिक विकास के बावजूद रोजगार के अवसर कम होते जा रहे हैं, तो दूसरी तरफ, हमारा समाज हर कामयाब इंसान को हीरो की तरह पूजता है। क्या जिंदगी में हर इंसान हरेक बार सफल हो सकता है? क्या जिंदगी में सफलता-विफलता साथ-साथ नहीं चलती?


छात्र-छात्राओं की खुदकुशी से यह सवाल भी उठता है कि क्या राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए कोई संगठित और व्यापक प्रयास नहीं किए जा सकते? क्या हमारी शिक्षा-व्यवस्था छात्रों को आत्महंता बनने से नहीं रोक सकती? क्या ऑक्टोपस की तरह छात्रों के भविष्य को जकड़ती कोचिंग इंडस्ट्री पर प्रभावी नियंत्रण नहीं लगाए जा सकते? क्या जेईई और नीट जैसी राष्ट्रीय परीक्षाएं सिर्फ शीर्षस्थ पांच प्रतिशत प्रतिभाओं के लिए बनाई गई हैं और शेष 95 फीसदी छात्रों को कोई अन्य अच्छे अवसर नहीं दिए जा सकते?


राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 ने विद्यार्थियों के मानसिक स्वास्थ्य और खुशहाली को उनके समग्र विकास का मूल आधार मानते हुए कई रचनात्मक सुझाव दिए थे। इनमें हर स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी में काउंसलर व मनोचिकित्सक नियुक्त करने, पढ़ाई के बोझ व उससे पैदा होने वाले तनाव को कम करने, रटने-रटाने की प्रवृत्ति को रोकने, जिंदगी जीने की कला सिखाने, मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता फैलाने, कैंपस को समावेशी व सुरक्षित बनाने और परिवार व शिक्षकों को प्रशिक्षित करने के सुझाव दिए गए थे। इन पर कितना अमल हो पाया है, इस पर श्वेत-पत्र जारी होना चाहिए।


हकीकत यह है कि देश में हर पांच में से दो इंसान मानसिक रोगों से पीड़ित है और एक लाख की आबादी पर हमें कम से कम तीन मनोचिकित्सक की जरूरत है, लेकिन यह संख्या बमुश्किल एक भी नहीं पहुंच रही। क्या स्वास्थ्य मंत्रालय मनोचिकित्सकों, मनोवैज्ञानिकों और काउंसलरों की संख्या बढ़ाने के लिए कोई योजना नहीं बना सकती? शिक्षित युवाओं में फैल रही हताशा को रोकने में ऐसे उपाय कारगर हो सकते हैं।



(ये लेखक के अपने विचार हैं)