उत्तर प्रदेश में टीचर ट्रांसफर: सरकारी सिस्टम का अमर रोग
"जब एक शिक्षक रोज़ 100 किलोमीटर सफर करता है, तो वह सिर्फ सड़क नहीं नापता—वह अपनी उम्र, अपने रिश्ते और अपने सपनों को भी नापता है।" उत्तर प्रदेश की ट्रांसफर व्यवस्था वैसी ही है जैसे किसी घर में पुराना अलार्म घड़ी—जो साल-दो साल में एक-दो बार सही बज जाती है, बाकी समय बस टिक-टिक करती रहती है। फर्क बस इतना है कि यहां गलती से भी अलार्म बज जाए, तो सरकार चौंककर कहती है—"अरे! यह तो इस बार अपने आप हो गया, अगली बार ध्यान रखेंगे कि यह गलती दुबारा न हो।"
उत्तर प्रदेश में शिक्षक ट्रांसफर एक ऐसी बीमारी बन चुका है, जिसका कोई इलाज सरकार के पास नहीं, और शायद खोजने की कोशिश भी नहीं। यह बीमारी केवल प्रशासनिक फाइलों में नहीं, बल्कि हजारों शिक्षकों के दिलों, दिमाग और घरों में पसरी हुई है। बीते नौ साल से इसका लक्षण एक ही है—वादा, तारीख, बहाना, फिर नई तारीख, और फिर एक और बहाना। सरकारें आती-जाती रहीं, चेहरों पर बदलाव होता रहा, पर इस बीमारी की आदत नहीं बदली।
सरकार के लिए यह सिर्फ एक प्रक्रिया है—कंप्यूटर के MIS पोर्टल पर एक क्लिक, किसी फाइल को एक टेबल से दूसरी टेबल पर रखना। लेकिन एक शिक्षक के लिए ट्रांसफर का मतलब है—हर दिन 100 से 150 किलोमीटर का सफर खत्म होना, बीमार माता-पिता के पास लौटना, बच्चों की हंसी सुनना, या बीमार जीवनसाथी का हाथ पकड़ना। यह उसकी जीवन की दिशा तय कर सकता है, लेकिन सरकारी दृष्टि में यह बस एक “पेंडिंग केस” है, जो किसी दिन निपटा दिया जाएगा।
इस बीमारी का इलाज ढूंढने की जगह सरकार ने बहानों की एक स्थायी दुकान खोल रखी है। कभी MIS पोर्टल में गड़बड़ी, कभी डेटा में विसंगति, कभी प्रक्रिया स्थगित, कभी चुनाव आचार संहिता, तो कभी मिड-सेशन का बहाना—और फिर उन्हें भूल जाना। बहानों की यह लिस्ट इतनी लंबी हो चुकी है कि अब कोई नया बहाना खोजने की भी जरूरत नहीं पड़ती—पुराने बहाने ही नए पैक में पेश कर दिए जाते हैं, जैसे पुराने अनाज में नया लेबल चिपका देना।
2017 में नई सरकार आई तो शिक्षकों में उम्मीद की लौ जली। कहा गया—"पारदर्शी ट्रांसफर होंगे ,दूसरे जिले में नियुक्त शिक्षक अपने घर के पास जाएंगे।" शिक्षकों ने राहत की सांस ली। मार्च आया—"थोड़ा इंतज़ार करें"। मई—"अब जल्दी करेंगे"। जून, जुलाई, अगस्त—हर बार नया वादा, वही बहाना। नई सरकार ने पुराने बहाने ही नए पैकेजिंग में बेच दिए। बस डायलॉग बदल गए, नीयत वही रही।
शायद सरकार के अफसर मानते हैं कि रोज़ 100–150 किलोमीटर का सफर करने वाले शिक्षक किसी “फिटनेस मिशन” का हिस्सा हैं। सुबह 5 बजे घर से निकलना, BLO ड्यूटी, मिड-डे मील का हिसाब, एक साथ तीन कक्षाओं को पढ़ाना—सरकार की नज़र में यह “वर्कआउट” है। यह अलग बात है कि इस वर्कआउट में शिक्षक की कमर और घुटने पहले जवाब दे देते हैं, फिर मन और आत्मा।
घर अब रविवार का ठिकाना बन चुका है। बच्चों की हंसी, माँ की दवाई, घर की छोटी-बड़ी जिम्मेदारियां—सब सिर्फ “सोच” में रह जाती हैं। जब शिक्षक खुद अपने बच्चों से दूर रहकर दूसरों के बच्चों को पढ़ाता है, तो यह त्याग है या मजबूरी? सरकार इसे त्याग कहकर अपनी पीठ थपथपा लेती है, लेकिन यह सच में किसी का दिल तोड़ने वाला मजबूरी का जीवन है।
संवेदनशीलता किस मंत्रालय के अधीन आती है, शायद किसी को याद नहीं। सरकारी फाइलों में ट्रांसफर बस एक डेटा कॉलम का बदलाव है, लेकिन असल में यह किसी इंसान की मानसिक शांति, पारिवारिक स्थिरता और पेशेवर प्रदर्शन का आधार है। लेकिन इन बातों का कोई कॉलम MIS पोर्टल पर नहीं होता, इसलिए इनकी कोई अहमियत भी नहीं।
सरकारी जवाब हमेशा तय होता है—"जल्दी होंगे, सिस्टम पर काम चल रहा है।" यह वही "जल्दी" है जिसमें 9 महीने में बच्चा पैदा हो जाता है, पर ट्रांसफर का फाइल पोर्टल से बाहर नहीं निकलता। सच तो यह है कि ट्रांसफर का बटन तभी दबता है, जब राजनीति को उसका फायदा हो। चुनाव नज़दीक आएं या किसी खास वोट बैंक को खुश करना हो, तभी प्रक्रिया अचानक तेज़ हो जाती है। बाकी समय, "तकनीकी कारणों" के ताले में शिक्षक की जिंदगी कैद रहती है।
यह समझना होगा कि शिक्षक मशीन नहीं है। उसके पास भी भावनाएँ हैं, थकावट है, परिवार है, सपने हैं। जब सरकार उसकी परेशानियों को "व्यक्तिगत" कहकर टाल देती है, तो वह केवल हतोत्साहित नहीं होता—वह धीरे-धीरे टूटने लगता है। और एक टूटा हुआ शिक्षक सिर्फ अपना मनोबल नहीं खोता, बल्कि आने वाली पीढ़ी के सपनों को भी कमजोर कर देता है।
ट्रांसफर कोई “फेवर” नहीं, बल्कि अधिकार है। इसे एक पारदर्शी, समयबद्ध और संवेदनशील प्रक्रिया में किया जाना चाहिए। परिवार, स्वास्थ्य और सामाजिक परिस्थितियों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। तकनीकी गड़बड़ियों और बहानों की यह पुरानी आदत खत्म होनी चाहिए।
उत्तर प्रदेश की ट्रांसफर व्यवस्था उस पुराने हैंडपंप जैसी है, जो कभी पानी देता है, कभी नहीं। जब पानी आता है, लोग कहते हैं—"देखो, काम कर रहा है।" और जब नहीं आता, तो कहते हैं—"पाइपलाइन ठीक हो रही है, इंतज़ार करो।" सवाल है—कब तक शिक्षक अपनी जिंदगी इस सूखी पाइपलाइन के भरोसे गुज़ारेंगे?
ट्रांसफर में देरी कोई तकनीकी गलती नहीं—यह संवेदनशीलता की कमी है। जब तक सरकार यह नहीं समझेगी कि शिक्षक भी इंसान है, तब तक यह रोग अमर रहेगा। नई सरकारें पुराने इलाज को नए नाम से बेचती रहेंगी, और मरीज—यानि शिक्षक—दिन-ब-दिन कमजोर होता जाएगा।
*शिक्षक का पद सम्मानित है, लेकिन यह सम्मान सिर्फ मंच पर भाषणों में नहीं, उनके जीवन में भी दिखना चाहिए। जब शिक्षक घर लौटकर अपने बच्चों के साथ खाना खा सके, बीमार माता-पिता की सेवा कर सके, या जीवनसाथी का हाथ पकड़कर मुश्किल वक्त में खड़ा रह सके, तभी शिक्षा का असली मूल्य बनेगा। वरना, हम बस आंकड़ों में “शिक्षक संतुष्टि” लिखते रहेंगे, और हकीकत में वे भीतर से खाली होते जाएंगे।*
*सरकार को अब सिर्फ नीति नहीं, नीयत भी बदलनी होगी। सिस्टम को यह मानना होगा कि शिक्षक कोई संसाधन नहीं, बल्कि समाज की आत्मा हैं। और जब आत्मा को रोज़-रोज़ थकाकर, तोड़कर, दूर रखकर जिंदा रखने की कोशिश की जाती है, तो न समाज बचता है, न शिक्षा।*
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