हम अपनी कक्षा की खिड़कियों से ट्रेनों को गुजरते हुए देख सकते थे। रेल लाइन एक किलोमीटर से अधिक दूरी पर थी, मगर नीचे ढलान की ओर थी, इसलिए देखने में हमें कोई दिक्कत नहीं आती थी। यहां तमिलनाडु एक्सप्रेस (इस रेलखंड पर सबसे तेज गुजरने वाली ट्रेन) को देखना सबसे सुखद होता था। हमें ग्रैंड ट्रंक एक्सप्रेस भी लुभाती थी। सन् 1978 में भी यह सबसे व्यस्त रेलमार्ग था, जो उत्तर को दक्षिण से जोड़ता है। यहां से कई यात्री और मालगाड़ियां भी गुजरती थीं, जिनको पहचानना मुश्किल होता, लेकिन हम उनके डिब्बों को गिनने की कोशिश करते। इन ट्रेनों के साथ हमारी कल्पनाएं भी गति पकड़तीं- मद्रास (अब चेन्नई), दिल्ली, आगरा, हैदराबाद और बॉम्बे (अब मुंबई) तक जा पहुंचतीं। वर्धा, इटारसी, वारंगल जैसी जगहों तक भी। ये तमाम इलाके 1978 में हमारी कल्पनाओं में ही बसा करते थे। इस तरह, हमारी कक्षा की वह खिड़की अनायास दुनिया के अलग-अलग रूपों से परिचय कराती।
वहां एक किलोमीटर के दायरे में कोई इमारत नहीं थी, चारों तरफ बस आग्नेय चट्टानें थीं और छोटे-बड़े गड्ढे, जो मानसूनी बारिश में पानी भरने से छोटा तालाब बन जाते। हम उन्हें ‘चट्टान’ कहते और ‘चट्टान-कूदना’ अत्यंत साहस का खेल होता। मुझे याद है, राहुल, जुबी, ईश कुमार, दीपक और कुछ अन्य साथियों ने हमें तब चौंका दिया था, जब उन्होंने दो चट्टानों के बीच की ऐसी ही एक ‘खाई’ को कूदकर पार कर लिया था। मानसून के बाद मछली और टैडपोल (मेंढक का नवजात बच्चा) पकड़ना हमारा प्रिय शगल होता। अप्रैल की तेज धूप में भी हम अक्सर इन चट्टानों पर उछलते-कूदते हुए घर वापस लौटा करते थे।
अब आप उन खिड़कियों से गुजरती रेलगाड़ियां नहीं देख सकते। चट्टानें गायब हो गई हैं और उनकी जगह कंक्रीट के जंगल खड़े हो गए हैं। मानसून में यहां टैडपोल भी नहीं दिखता। चूंकि, मैं हर कुछ महीने पर एकाध बार वहां गाड़ी से गुजरता ही हूं, इसलिए मुझे यह भी पता है कि अब वहां से पैदल घर लौटना आसान नहीं होगा। सवाल है, यदि किसी बच्चे की कल्पना खिड़की से दिख रही तमिलनाडु एक्सप्रेस के साथ गति नहीं पकड़ती है, तो क्या होता है? क्या यह अच्छा है या खराब? जब मैं स्कूल में था, तब उसे सिर्फ केंद्रीय विद्यालय, भोपाल कहा जाता था। आज वह केंद्रीय विद्यालय नंबर 1, भोपाल बन गया है, क्योंकि इस शहर में अब पांच केंद्रीय विद्यालय हैं। बेशक, एक मामले में यह अच्छा है कि स्कूलों की संख्या बढ़ गई है और हमारे पास जितने अधिक स्कूल होंगे, उतना ही अच्छा होगा, लेकिन जैसे-जैसे ऐसे स्कूलों का विस्तार हुआ है, उनके संसाधन बढ़े हैं, इनमें से कई स्कूल सिमट भी गए हैं। स्कूलों की भौतिक दुनिया, जो उनको प्रकृति और शहर से जोड़ती थी, सिकुड़ गई है। खिड़कियां अब विविधता वाली दुनिया के लिए नहीं खुलती हैं। छात्र टैडपोल नहीं पकड़ सकते हैं और न पैदल घर जा सकते हैं। चूंकि ज्यादातर छात्र एक समान पृष्ठभूमि से आते हैं, इसलिए इन स्कूलों की सामाजिक दुनिया भी अब काफी छोटी हो गई है। केंद्रीय विद्यालयों का हाल भी इससे जुदा नहीं है।
इस सिकुड़न का हम पर क्या प्रभाव पड़ता है? इसका कोई निश्चित उत्तर बताना मूर्खतापूर्ण होगा, लेकिन मेरा मानना है कि ऐसे स्कूलों में जाने वाले बच्चों की तालीम सिमट रही है, उनमें भाईचारा और सहानुभूति की भावना घटती जा रही है, इसीलिए वे विविध लोगों व प्रकृति से दूर हो रहे हैं। बौद्धिक रूप से ही नहीं, बल्कि अपने अंतरतम अस्तित्व में भी वे अनुभवों से वंचित हो रहे हैं। संभवत: मानवता के रूप में साझा अस्तित्व की हमारी भावना भी कमजोर हो रही है। देश में 26 करोड़ बच्चों में से ज्यादातर इन खास स्कूलों में नहीं जाते हैं। जिन स्कूलों में वे जाते हैं, उनमें से अधिकांश में तत्काल सुधार और बदलाव की दरकार है। हालांकि, स्कूलों की इस सिकुड़न से देश पर भी असर पड़ेगा। जिस तरह से हमारे समाज का विज्ञान संचालित हो रहा है, जीवन के तमाम क्षेत्रों में इन स्कूलों से निकलने वाले बच्चे नेतृत्व की भूमिका में आ सकते हैं। ऐसे में, जरा सोचिए कि अगर उनकी मानसिक व भावनात्मक सोच संकुचित रही, तो हमारा देश कहां जाएगा?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)