*शिक्षक दूर जा रहे हैं*
(लेखक: कृष्ण कुमार
NCERT निदेशक)
आजकल एक स्थायी शिक्षण नौकरी पाना आसान नहीं है, फिर भी कई युवा शिक्षक नौकरी छोड़कर बेरोजगारी और अनिश्चितता की स्थिति स्वीकार कर रहे हैं। स्कूलों में जो गहरी बेचैनी फैल रही है, उसके बारे में बाहर की दुनिया को बहुत कम जानकारी है।
यूनेस्को ने लगभग दो दशक पहले ही इस प्रवृत्ति की शुरुआत पर ध्यान दिया था। उसकी पत्रिका Prospects के एक प्रमुख लेख का शीर्षक था — “Where have all the teachers gone?” (सभी शिक्षक कहाँ चले गए?)। उस लेख में यह बताया गया था कि विश्वभर के शिक्षकों में थकान, निराशा और असंतोष बढ़ रहा है। इसके कई कारण थे — कुछ स्कूलों और कक्षाओं की परिस्थितियों से जुड़े थे, तो कुछ घर-परिवार के वातावरण में हुए परिवर्तनों से, जिन्होंने बच्चों के व्यवहार को प्रभावित किया।
भारत में इस पर अब तक कोई ठोस अध्ययन नहीं हुआ है, लेकिन शिक्षक आपस में इन कठिनाइयों की चर्चा ज़रूर करते हैं जो उनके पेशेवर जीवन को कठिन बना रही हैं।
सरकारी और निजी दोनों प्रकार के स्कूलों में शिक्षकों को अब अत्यधिक नियंत्रण, आदेशों और दिखावटी अपेक्षाओं का सामना करना पड़ता है। एक उत्कृष्ट इतिहास शिक्षक ने बताया कि उनके स्कूल में उन्हें पढ़ाने से अधिक “प्रशासनिक” और “डिजिटल” कामों में लगाया जाता था — उन्होंने नौकरी छोड़ दी। दूसरी शिक्षिका ने कहा कि उनके केंद्रीय विद्यालय में शिक्षक अब “इवेंट मैनेजर” बन गए हैं। ऊपर से आदेश आते हैं कि हर अवसर का आयोजन करो और उसकी तस्वीरें अपलोड करो ताकि ‘पालन’ का सबूत रहे।
रिकॉर्ड रखना हमेशा से शिक्षक के काम का हिस्सा रहा है, पर अब यह पढ़ाने से भी अधिक महत्वपूर्ण बना दिया गया है। बार-बार होने वाली परीक्षाओं और डिजिटल रिकॉर्ड-कीपिंग ने उनका शिक्षण समय लगभग खत्म कर दिया है।
एक गरीब पृष्ठभूमि से आने वाले शिक्षक ने अपनी सरकारी नौकरी इसलिए छोड़ दी क्योंकि उन्हें असंगत अतिरिक्त कार्यों का तनाव झेलना असंभव लगने लगा। उन्हें बच्चों को MCQ परीक्षा की तैयारी करानी पड़ती थी, क्योंकि स्कूल की छवि इन्हीं अंकों पर निर्भर थी। वहीं, कक्षाओं में बढ़ती हिंसा और आक्रामकता से निपटना भी कठिन हो गया था।
कक्षा में बढ़ती हिंसा, बदमाशी और आक्रामकता से कई शिक्षक असहाय महसूस करते हैं। इस पर किए गए कुछ अध्ययनों के अनुसार, इसका कारण बच्चों का सोशल मीडिया में अत्यधिक जुड़ाव और उसमें दिखाए जाने वाले हिंसक दृश्यों से प्रभावित होना है। छोटे बच्चों के हाथों में स्मार्टफोन जल्दी आने से यह समस्या और गहराती जा रही है — जैसा कि जोनाथन हैइट ने अपनी पुस्तक The Anxious Generation में बताया है।
ग्रामीण भारत के हजारों प्राथमिक विद्यालय केवल दो या तीन शिक्षकों के सहारे चल रहे हैं। उन्हें सीमित संसाधनों में पढ़ाने के साथ-साथ ब्लॉक और जिला अधिकारियों के लिए तमाम तरह का डेटा (जैसे प्रवेश, उपस्थिति, छात्रवृत्ति, भोजन, प्रशिक्षण, खर्च आदि) इकट्ठा कर ऑनलाइन भेजना पड़ता है।
अब पूरा तंत्र “डेटा पारदर्शिता” और “परिणामों की समय पर रिपोर्टिंग” में उलझ गया है। शिक्षण और बच्चों का वास्तविक सीखना पीछे छूट गया है। सिस्टम का ध्यान अब “गुणवत्ता सुधार” के नाम पर केवल आंकड़ों के समय पर अपलोड करने पर है। शिक्षक और प्रधानाध्यापक भली-भांति समझ चुके हैं कि अब प्रशासन और दानदाता बच्चों के सीखने या उनके कल्याण से अधिक “कुशलता के प्रमाण” में रुचि रखते हैं।
सच्चाई यह है कि जो “आधिकारिक सत्य” ऊपर तक पहुंचता है, वह शिक्षकों की असली सच्चाई से बिल्कुल अलग होता है — और शिक्षक उस सच्चाई को साझा करने से डरते हैं, क्योंकि उन्हें उसके दुष्परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं।