मैं यहां एक ऐसे सरकारी प्राइमरी स्कूल की बात कर रहा हूं, जिसमें तीन कमरे हैं, मगर इनको ‘क्लासरूम’ कहना ठीक नहीं होगा। देश के ज्यादातर प्राइमरी स्कूलों में कक्षा 1 से 5 तक की पढ़ाई के लिए अलग से कमरे होते हैं। अगर पर्याप्त कमरे न हों, तो एक ही में दो कक्षाएं चलती हैं। लेकिन, यहां विषयों के नाम से कमरे हैं। इसीलिए इनको ‘विषय कक्ष’ कहना ज्यादा उचित होगा।
यहां की सारी व्यवस्था अन्य स्कूलों से बिल्कुल अलग है। इस स्कूल में कक्षा खत्म होने पर छात्र तो कमरे से चले जाते हैं, पर शिक्षक जमे रहते हैं। यह व्यवस्था कुछ अन्य देशों और भारत के कई अति-कुलीन कहे जाने वाले स्कूलों में भी है। लेकिन देश के सुदूर इलाके के एक सरकारी प्राइमरी स्कूल में यह व्यवस्था देखना मेरे लिए वाकई सुखद आश्चर्य था।
दरअसल, यहां के प्रधानाध्यापक 18 साल पहले स्कूल के खुलने के समय से ही इससे जुड़े हुए हैं। स्थानीय होने के कारण उन्होंने गांव के ही प्राथमिक विद्यालय में पढ़ाई की थी। इसके बाद वह माध्यमिक और उच्च शिक्षा के लिए शहर चले गए। वर्षों बाद जब इस स्कूल की स्थापना हुई, तो उन्हें अपना छात्र जीवन याद आया। उनके जेहन में उस समय की जो सबसे नीरस बात अटकी रह गई थी, वह थी सालों-साल एक ही कमरे में पढ़ाई करना। प्रधानाध्यापक ने सोचा कि क्यों न हर विषय के लिए छात्रों का कमरा बदल दिया जाए? उन्होंने हिंदी, गणित और अंग्रेजी की पढ़ाई के लिए अलग-अलग कमरे निर्धारित किए। स्कूल में और कोई कमरा नहीं था, इसलिए पर्यावरण विषय के अध्ययन के लिए उन्होंने स्कूल प्रांगण की घनी छाया को चुना।
यह नई व्यवस्था बच्चों को बहुत पसंद आई। कमरे बदलने के लिए मचने वाली आपाधापी ने बच्चों में उत्साह पैदा किया। धीरे-धीरे, इन कक्षों में कई बदलाव होते गए। उनमें विषय से संबंधित पोस्टर लग गए, शिक्षण सामग्री जमा की गई। कमरे के कोने विषय से संबंधित खेल सामग्री से भर गए।
वर्षों बाद वहां जाने पर मैंने पाया कि बदलाव व्यापक संस्कृति का हिस्सा बन गए थे। इसका परिणाम भी वहां दिख रहा था। जब मैं कक्षा तीन के बच्चों से मिला, तो उनमें उम्र के हिसाब से भाषा, गणित और अंग्रेजी की अपेक्षाकृत बेहतर समझ थी। ऐसे समय में, जब देश के सरकारी स्कूल बुनियादी साक्षरता और सामान्य अंकगणित का ज्ञान भी नहीं दे पाते हों, एक ‘दूरदराज’ के सरकारी स्कूल में यह उपलब्धि चमत्कार जैसी थी। इससे भी खास बात थी बच्चों का आत्मविश्वास, भेदभाव या पूर्वाग्रह से मुक्त व्यवहार, मस्ती और आनंद की भावना। जब मैंने प्रधानाध्यापक से पूछा कि आपने यह सब कैसे किया, तो उन्होंने बस इतना कहा कि वह हर दिन अपना काम थोड़ा बेहतर करने की कोशिश करते हैं और उनकी टीम पूरी लगन से उनके साथ काम करती है। जब मैंने उनसे पूछा कि क्या किसी ने आपको स्कूल में बदलाव करते समय रोकने की कोशिश नहीं की? उनका जवाब था, ‘कौन आता है यहां, जो रोकेगा या पूछेगा?’
इससे हमें कई सीखें मिलती हैं। पहली, हमारे स्कूल संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं। दूसरी, शिक्षक समर्पित और विचारशील हों, तो बहुत कुछ हासिल कर सकते हैं। तीसरी, एक प्रधानाध्यापक इनमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। चौथी, अगर लोग प्रतिबद्ध हो जाएं, तो संसाधनों की कमी और अन्य चुनौतियां भी उनके जज्बे को तोड़ नहीं सकतीं। पांचवीं और सबसे महत्वपूर्ण बात, हमारे पास ऐसी भावना वाले बहुत से लोग हैं, जो देश की स्थिति से असंतुष्ट हैं और वे सुधार देखना चाहते हैं।
हमारी नीतियां अक्सर इस भावना के अनुकूल होती हैं, लेकिन उनका क्रियान्वयन नहीं हो पाता। अगर हम शिक्षा में बदलाव लाना चाहते हैं, तो हमें दृष्टिकोण बदलना होगा। बड़े बदलाव छोटे-छोटे परिवर्तनों से ही संभव होते हैं, बल्कि उन लोगों द्वारा उठाए गए कदमों से, जो जिम्मेदारी लेने और सुसंगत तरीकों से काम करने को तैयार हैं। समय के साथ ये बदलाव बेहतर परिणाम देते हैं। जो लोग इस तरह के चमत्कार पैदा करते हैं, वही हमारे असली नायक हैं। हालांकि, उन्हें इसका एहसास कम ही होता है, शायद इसीलिए वे सफल भी होते हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)