भारत को बनाने में यूं तो अनगिनत लोगों ने योगदान दिया है, मगर कृष्णस्वामी कस्तूरीरंगन का नाम पहली कतार में हमेशा शामिल रहेगा। इसी अप्रैल में 25 तारीख को वह इस दुनिया से विदा हो गए। अपने छोटे से छोटे योगदान का श्रेय भी वह अपनी टीम, गुरुओं, दोस्तों व परिस्थितियों को देना पसंद करते थे। मैं सोच रहा था, उन्हें कैसे श्रद्धांजलि दी जाए?
मुझे एक समाधान मिल गया। मैं एक किताब के बारे में लिख रहा हूं, जो मैंने अक्तूबर 2017 में उन्हें दी थी, जब हम सबने राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 (एनईपी 2020) पर काम करना शुरू किया था। कस्तूरीरंगन ने इस समिति की अध्यक्षता की थी। आइए, आपको 60 साल पीछे लिए चलता हूं।
सन् 1966 में कोठारी आयोग की रिपोर्ट ने देश की शिक्षा-प्रणाली में बदलाव का पहला व्यापक खाका खींचा था। साल 1968 में इसे राष्ट्रीय शिक्षा नीति के रूप में अपनाया गया। आयोग के सदस्य सचिव जे पी नाइक इसके मुख्य वास्तुकार थे। 1979 में आई उनकी किताब एजुकेशन कमीशन ऐंड आफ्टर शिक्षा नीति के शुरुआती एक दशक के क्रियान्वयन का मूल्यांकन करती है। यह उस दशक के ढांचागत सुधार के असाधारण वादे और इसे बेपटरी करने वाली स्याह हकीकत, दोनों को उजागर करती है।
आयोग की सोच शिक्षा को एक बड़ी लोकतांत्रिक ताकत के रूप में फिर से परिभाषित करने की थी। उसने कॉमन स्कूल सिस्टम का प्रस्ताव दिया था, ताकि अभिजात वर्ग के निजी संस्थानों और कम संसाधन वाले सरकारी स्कूलों के बीच की गहरी खाई पाटी जा सके। आयोग ने माना कि शैक्षिक समानता लाने के लिए शिक्षा तक पहुंच ही काफी नहीं है, बल्कि इससे कहीं अधिक प्रयास करने होंगे। इसके लिए सामाजिक मेलजोल की जरूरत थी, जो तभी होता है, जब सभी पृष्ठभूमि के बच्चे नजदीक के गुणवत्तापूर्ण स्कूलों में एक साथ पढ़ते हैं। मगर इस नजरिये को भारत की गहरी, खंडों में बंटी सामाजिक-व्यवस्था से टकराना पड़ा। राज्य सरकारों में शैक्षिक अलगाव को बनाए रखने वाले मजबूत मतदाता वर्गों से टकराने का राजनीतिक साहस नहीं था। इनमें समाजवादी प्रतिबद्धता का दावा करने वाली हुकूमतें भी शामिल थीं। नतीजतन, एक ऐसे तंत्र का निर्माण हुआ, जिसने समानता के आडंबर को जिया, असलियत में विषमताओं को ही मजबूत किया।
आयोग के प्रस्तावों को महत्वपूर्ण आर्थिक फैसले लेने की अनिच्छा ने कमजोर किया। अगर हम वैश्विक मानदंडों और भारत के विकास की जरूरतों का गहराई से अध्ययन करें, तो सकल घरेलू उत्पाद का छह फीसदी हिस्सा शिक्षा को आवंटित करने का प्रस्ताव एक कार्रवाई-योग्य सिफारिश थी। मगर इस लक्ष्य तक उस पहले दशक में भी नहीं पहुंचा गया,बल्कि 1970 के दशक की शुरुआत में खर्च बमुश्किल 2.8 फीसदी के आसपास किया गया। नाइक बताते हैं कि इसने एक के बाद दूसरी विफलताओं को जन्म दिया- तब शिक्षकों का वेतन बहुत कम था, प्रशिक्षण के लिए संसाधनों की कमी थी और बुनियादी ढांचे का विकास त्रासद रूप से पिछड़ गया। व्यावसायिक शिक्षा की भी उपेक्षा हुई, जबकि इसे स्कूली शिक्षा और रोजगार के बीच सेतु के रूप में देखा गया था। 1970 के दशक के मध्य तक देश के माध्यमिक स्कूलों में दाखिले की दर पांच प्रतिशत से कम हो गई, जबकि लक्ष्य 50 फीसदी रखा गया था।
इसी तरह, आयोग की सिफारिशों की एक और बुनियाद- शैक्षणिक सशक्तीकरण भी निराशाजनक स्थिति में पहुंच गई। बेशक, शिक्षकों के नए प्रशिक्षण संस्थान उभरे, लेकिन नियमों और असंगत मानकों के कारण उनका प्रभाव कम हो गया। साल 1973 में एक निगरानी संस्था के रूप में राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद का गठन जरूर किया गया, लेकिन उसकी सिफारिशों की राज्य सरकारों ने लगातार अनेदखी की और जल्द ही यह निष्क्रिय हो गई। पेशेवर तरीके से जो पुनर्जागरण होना चाहिए था, वह एक और कागजी फाइल बनकर रह गया; शिक्षकों की स्वायत्तता और रचनात्मकता सख्त प्रशासनिक मानसिकता का शिकार बन गईं।
नाइक ने ऐसी कई वजहों की जानकारी दी है, जिनके कारण शिक्षा नीति का क्रियान्वयन नहीं हो सका। पहली वजह, हमारे पास जवाबदेही तय करने वाले तंत्र की कमी थी। आयोग की सिफारिशें अनिवार्य होने के बजाय सलाह भर रहीं, जिसके कारण सरकारों ने चुनौतीपूर्ण सुधारों की अनदेखी करते हुए उन्हीं तत्वों को अपनाया, जो उनके लिए सुविधाजनक थे।
दूसरी, केंद्र की नीयत और राज्यों के क्रियान्वयन के बीच अंतर्निहित तनाव के समाधान के लिए बहुत कम प्रयास किए गए। हमें नीति की मूल भावना को बरकरार रखते हुए उसमें स्थानीय संदर्भों को जोड़ने की जरूरत थी। आयोग ने इसीलिए शैक्षिक मामलों में पर्याप्त स्थानीय स्वायत्तता की वकालत की थी। मगर व्यवहार में यह हरेक स्तर पर केंद्र की नौकरशाही में फंस गई।
नाइक के मुताबिक, शायद सबसे अहम वजह यह थी कि इन सुधारों की मांग करने वाला कोई टिकाऊ जनदबाव न बन सका। भूमि सुधार या भाषायी आंदोलनों के विपरीत, जिनकी आम लोगों के बीच जगह बनी, शिक्षा सुधार काफी हद तक कुलीन वर्ग की चिंता बने रहे। नतीजा यह हुआ कि बाद की सरकारों ने शिक्षा को प्राथमिकता के मामले में दूसरे पायदान पर रखा, जिसके कारण इसको बजटीय कटौती से जूझना पड़ा। चूंकि शिक्षा से आम लोगों के हित सधते हैं, इसलिए आयोग की सोच इसे लेकर व्यापक सामाजिक सहमति बनाने की थी, लेकिन यह सोच कभी साकार न हो सकी। यदि आप भारत में रुचि रखते हैं और निवेश करना चाहते हैं, (केवल भारत की शिक्षा में नहीं) तो नाइक की यह किताब जरूर पढ़ी जानी चाहिए।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 पर जब हमारा काम पूरा हो गया, तो एक दिन डॉ कस्तूरीरंगन ने मुझे बुलाया और कहा, ‘तुम 2030 में एजुकेशन कमीशन ऐंड आफ्टर लिखोगे।’ यह कोई सवाल नहीं था। उन्होंने शायद ही कभी सीधे तौर पर कुछ पूछा हो, इसलिए मैंने कहा, ‘हां सर, जरूर लिखूंगा’। अब यही उनके लिए श्रद्धांजलि हो सकती है, जिसे वह भी ठुकरा नहीं पाएंगे। मगर इसके लिए हमें जे पी नाइक के अनुभव से सीखना होगा और राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 को लागू करना होगा। अगर इसे पूरी तरह लागू न भी कर सकें, तो एक जायज हद तक जरूर लागू किया जाना चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)