> बेसिक शिक्षा में विलय की योजना खासतौर से कम नामांकन वाले स्कूलों को बड़े स्कूलों में शामिल करने की चल रही है
>> माना जा रहा है कि इससे गरीबों के बच्चे हो सकते हैं शिक्षा से वंचित
लखनऊ। उत्तर प्रदेश में स्कूलों के विलय की योजना खासतौर से कम नामांकन वाले स्कूलों को बड़े स्कूलों में शामिल करने की चल रही है। इसका उद्देश्य शिक्षा प्रणाली को बेहतर बनाना, संसाधनों का प्रभावी उपयोग करना और शिक्षकों की कमी को दूर करना बताया जा रहा है। वर्तमान में 50 से कम छात्र संख्या वाले विद्यालयों का समीप के दूसरे विद्यालयों में मर्ज करने की तैयारी चल रही है जिससे गरीबों के बच्चों का शिया से वंचित होने का खतरा बढ़ गया है। प्राप्त समाचार के अनुसार बेसिक शिक्षा के अधीन संचालित प्राथमिक व उच्च प्राथमिक विद्यालयों को समीप के दूसरे विद्यालयों में मर्ज करने की तैयारी पूर्ण कर ली गयी है जहाँ पर नामांकन 50 से कम है हालाकि विभाग के इस कुचक्र का शिक्षक संघ पुरजोर विरोध कर रहे हैं और विद्यालयों का मर्जर न से इसको लेकर विभिन्न संगठन आर-पार का मूड बना चुके हैं। स्कूल मर्ज होने से बड़ी संख्या में शिक्षकों के पद भी खत्म हो जाएंगे।
शिक्षकों का कहना है कि एक और तो शिक्षा गुणवत्ता को लेकर सरकार बड़ी-बड़ी बातें कर रही है दूसरी ओर स्कूलों और शिक्षकों की संख्या को कम करने की तैयारी चल रही है। स्कूलों में लाखों की संख्या में शिक्षकों के रिक्त पद है। एक-एक शिक्षक पांच पांच कक्षाओं का संचालन कर रहा है।
अपनी खामियों पर पर्दा डालने के लिए सरकार ऐसा कदम उठा रही है। वैसे चेसिक शिक्षा के विद्यालयों में अधिकांशतः गरीब तबके के शिक्षा ग्रहण करते हैं ऐसे में मर्जर के बहाने विद्यालयों को बन्द करने के कुचक्र से सबसे पहले गरीबों के बच्चों के शिक्षा का हक
छिनेगा। विद्यालयों के मर्जर से विद्यालयों की दूरी बढ़ जायेगी जिसके कारण कक्षा 1, 2 व 3 के बच्चे स्कूल नहीं पहुँच पायेंगे जिस कारण उनके शिक्षा से वंचित होने का खतरा बढ़ जायेगा। मर्जर के प्रकरण पर जब हमारे संवाददाता ने कुछ अभिभावकों से बात किया तो उन लोगों ने मुखर होकर अपनी बात रखते हुए बताया कि शासन का यह गलत कदम है विद्यालय दूर होने से बच्चों की सुरक्षा प्रभावित हो जायेगी। अब देखना यह होगा कि इस पहल का जमीनी असर कितना व्यापक होता है।
शिक्षाशास्त्री प्रवीण त्रिवेदी का कहना है कि विभागीय अधिकारियों की और से यह तर्क दिया जा रहा है कि स्कूलों के पकीकरण (मर्ज) से शिक्षकों की उपलब्धता बेहतर हो सकेंगी और उन्हें एक ही स्थान पर समायोजित करके गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दी जा सकेंगी लेकिन इस तर्क की जड़े दरअसल उसी विफलता में हैं जिसमें व्यवस्था एक लबे अरसे से प्रति कक्षा एक अध्यापक देने में असफल रही है। सामान्य समझ कहती है कि प्रत्येक कक्षा के लिए एक प्रशिक्षित अध्यापक होना चाहिए परंतु वर्षों से हजारों विद्यालयों में शिक्षक न होने या एक शिक्षक से दो से तीन कक्षाएं पढ़वाने की प्रवृत्ति ने इस प्रावधान की गंभीर अवहेलना की है।
अब उसी विफलता को तर्क बनाकर स्कूल मर्ज किए जा रहे हैं। यानी जब व्यवस्था अपने कर्तव्य में असफल रही तो समाधान यह निकाला गया कि स्कूल ही घटा दिए जाएं। यह एक अपरिपक्क सोच है जिसमें असफलता का बोझ बच्चों पर होला जा रहा है। यह कह देना आसान है कि कम बच्चों वाले स्कूल व्यर्थ है पर कोई यह क्यों नहीं कहता कि प्रति कक्षा एक शिक्षक नहीं दे पाने वाली व्यवस्था भी विफल है। व्यवस्था को अपने कर्तव्यों के निर्वहन की समीक्षा करनी चाहिए न कि बच्चों के अधिकारों में कटौती करनी चाहिए