थके हुए शिक्षक का क्लासरूम में स्वागत करना चाहती है सरकार?
शिक्षक समाज का दर्पण होता है। वही भविष्य की पीढ़ी का निर्माता है, लेकिन आज उसी शिक्षक का मनोबल लगातार टूट रहा है। विद्यालयों में शिक्षकों पर बढ़ते प्रशासनिक और गैर-शैक्षणिक कार्यभार ने उन्हें मानसिक थकान और तनाव के भंवर में धकेल दिया है। परिणामस्वरूप, शिक्षा की गुणवत्ता पर गहरा असर पड़ने लगा है।
विद्यालयों में शिक्षकों की ड्यूटी प्रातः 9 बजे से अपराह्न 3 बजे तक निर्धारित है। लेकिन वास्तविकता यह है कि यह केवल “विद्यालयी समय” है, जबकि शिक्षक का कार्य इससे कहीं अधिक विस्तृत है। सुबह जल्दी उठकर विद्यालय की तैयारी, अध्यापन सामग्री तैयार करना, रिकॉर्ड अपडेट करना, विद्यालय तक आना-जाना और घर लौटकर कॉपी जांचना—इन सबके बीच उसका दिन व्यावहारिक रूप से आठ से दस घंटे का हो जाता है।
ऐसे में जब सरकारें शिक्षकों को बीएलओ (Booth Level Officer) की जिम्मेदारी सौंप देती हैं, तो यह उनके लिए एक नई परेशानी बन जाती है। बीएलओ का कार्य केवल कागज़ी औपचारिकता नहीं, बल्कि क्षेत्रीय भ्रमण, मतदाता सूची सत्यापन, फॉर्म भरवाना और रिपोर्टिंग जैसे श्रमसाध्य कार्यों से जुड़ा होता है। अधिकारी कहते हैं कि यह कार्य “विद्यालय समय के बाद” किया जाए, लेकिन शिक्षक के पास विद्यालय के बाद भी परिवार, घर और व्यक्तिगत जीवन की जिम्मेदारियाँ होती हैं। ऐसे में बीएलओ की ड्यूटी न केवल थकावट बढ़ाती है, बल्कि शिक्षकों के मानसिक स्वास्थ्य पर भी गहरा प्रभाव डालती है।
उधर लगभग हर रविवार किसी न किसी प्रतियोगी परीक्षा — पीसीएस, पीईटी, टीईटी, सीटीईटी, आरओ/एआरओ, डीएलएड या अन्य भर्ती परीक्षाओं — में शिक्षकों की ड्यूटी लगाई जा रही है। रविवार जो विश्राम और पारिवारिक समय का दिन होना चाहिए था, अब वह भी परीक्षा ड्यूटी का दिन बन गया है। परिणाम यह है कि शिक्षक लगातार काम करते रहते हैं, उन्हें आराम का अवसर नहीं मिलता, और यह निरंतर तनाव अब उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य दोनों पर असर डाल रहा है।
अनेक शिक्षक आज अनिद्रा, सिरदर्द, चिड़चिड़ापन और उच्च रक्तचाप जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं। यह केवल व्यक्तिगत संकट नहीं है, बल्कि शिक्षा व्यवस्था के लिए खतरे की घंटी है। एक थका हुआ शिक्षक न तो नई शिक्षण तकनीकों पर ध्यान दे सकता है, न ही विद्यार्थियों की व्यक्तिगत प्रगति पर। यह स्थिति अंततः छात्रों की सीखने की प्रक्रिया और विद्यालयी वातावरण दोनों को प्रभावित कर रही है।
सरकार और प्रशासन को यह समझना होगा कि शिक्षक केवल एक कर्मचारी नहीं, बल्कि एक विचारक और मार्गदर्शक है। जब वही थका और हताश होगा, तो समाज का बौद्धिक विकास रुक जाएगा।
समाधान के लिए कुछ कदम तुरंत उठाए जाने चाहिए —
👉शिक्षकों को बीएलओ और अन्य गैर-शैक्षणिक कार्यों से यथासंभव मुक्त किया जाए।
👉रविवार को अनिवार्य विश्राम दिवस के रूप में मान्यता दी जाए।
👉शिक्षकों के मानसिक स्वास्थ्य हेतु परामर्श, योग और ध्यान शिविरों का आयोजन किया जाए।
👉प्रशासनिक कार्यों को डिजिटल और सरल बनाया जाए ताकि शिक्षक अपने वास्तविक कार्य — अध्यापन — पर ध्यान केंद्रित कर सकें।
आज आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षकों को कर्तव्यनिष्ठ कर्मी नहीं, बल्कि राष्ट्रनिर्माता के रूप में देखा जाए।
यदि हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे ज्ञानवान और संवेदनशील बनें, तो हमें अपने शिक्षकों को भी विश्राम, सम्मान और संतुलित कार्यभार देना होगा।
क्योंकि सच यही है —
“थका हुआ शिक्षक कभी प्रेरणा नहीं दे सकता।”

