सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को एक अहम फैसले में कहा कि वह विधानसभा से पारित विधेयकों को मंजूरी देने के लिए राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए समय-सीमा तय नहीं कर सकता। साथ ही स्पष्ट किया कि राज्यपाल को अनिश्चित काल तक किसी विधेयक को रोके रखने का अधिकार भी नहीं है।
मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई की अगुवाई वाली संविधान पीठ ने राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद-143 के तहत प्राप्त शक्ति का इस्तेमाल करते हुए पूछे गए संवैधानिक सवालों का जवाब देते हुए फैसला दिया। पीठ ने कहा, अदालत अनुच्छेद 142 के तहत प्राप्त असाधारण शक्तियों का इस्तेमाल कर विधेयकों को डिम्ड असेंट (स्वत: मंजूर मान लेना) घोषित नहीं कर सकती। यह अवधारणा न सिर्फ संविधान की भावना के खिलाफ है बल्कि शक्तियों के बंटवारे के सिद्धांत का भी उल्लंघन है। यह राज्यपाल के कामकाज पर अतिक्रमण के समान है।
पीठ ने कहा, हमें यह कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि समय सीमा खत्म होने पर राज्यपाल या राष्ट्रपति द्वारा विधेयक को स्वत: मंजूरी घोषित करना, वास्तव में न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका के कामों पर कब्जा करना और उन्हें बदलना है। यह ठीक नहीं है।
हालांकि, पीठ ने कहा कि राज्यपाल लंबे समय तक या बिना वजह मंजूरी देने में देरी करते हैं तो अदालत कुछ निर्देश जारी कर सकती है। अनुच्छेद 200 विधेयकों को मंजूरी देने की शक्ति से जुड़ा है, जबकि अनुच्छेद 201 जो राष्ट्रपति के विचार के लिए रखा गया है।
संघवाद के सिद्धांत के खिलाफ: सर्वसम्मति से पारित फैसले में पीठ ने कहा, यदि राज्यपाल को अनुच्छेद 200 के तहत विधेयकों को अनिश्चित काल तक रोके रखने की मंजूरी दी गई तो यह संघवाद के सिद्धांत के खिलाफ होगा। पीठ ने कहा, राज्यपाल और सदन के बीच संवैधानिक बातचीत शुरू करने वाला पहला प्रोवाइजो और अनुच्छेद 200 के जरूरी हिस्से के तहत राष्ट्रपति के विचार के लिए विधेयक को आरक्षित करने का विकल्प, भारतीय संघवाद की सहयोगात्मक भावना दिखाता है। यह संविधान में बताए गए चेक-एंड-बैलेंस मॉडल के पहलू को भी सामने लाता है।
दो जजों के फैसले को गलत बताया
पीठ ने कहा, तमिलनाडु सरकार के मामले में दो जजों की पीठ के फैसले के कुछ पैराग्राफ, जिनमें राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए विधेयक को मंजूरी देने के लिए समय-सीमा तय की गई थी, वह गलत हैं। दो जजों की पीठ ने आठ अप्रैल को राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए विधानसभा से पारित विधेयकों को मंजूरी देने के लिए समय सीमा तय कर दी थी। दो जजों की पीठ ने तमिलनाडु सरकार की याचिका पर यह फैसला दिया था, जिसमें राज्यपाल द्वारा 10 विधेयकों को मंजूरी नहीं दिए जाने को चुनौती दी थी।
पारित विधेयकों को स्वत: मंजूर घोषित करना राज्यपाल के कामकाज पर अतिक्रमण करने के समान है। यह अवधारणा न केवल संविधान की भावना के खिलाफ है बल्कि शक्तियों के बंटवारे के सिद्धांत का भी उल्लंघन है।
-जस्टिस बी.आर.गवई, मुख्य न्यायाधीश

